Monday, June 9, 2008

hum karenge Intezaar

सजाया था हमने भी आंखों में एक सपना ,
मिला था गैरों की भीड़ हमें कोई अपना |

गुफ्तगू थी दो दिलों के दरमियान,
सोचा प्यारा सा होगा ये सफर अपना |

इब्तिदा थी ये हमारी मोहब्बत की ,
बनाना चाहा था हमने भी एक आशियाना |

आबाद समझा हमने जिसे देख के ,
बे -तासीर कर चले हैं हमें तनहा छोड़ के |

यूं ही दिल
में दबे रह गए हमारे सब अरमान ,
तुम चले जब दूर ले कर अपना सामान |

मेरी जान तुम होगी हैरान ये जान के ,
खुश थे हम तुम्हे भी
अपना मान के |

पैगाम आया की तुम चले कहीं हमें छोड़ के ,
तालुकात हमारे दिल से सारे
तोड़ के |

अब यूं जो चले जा रहे हो हमसे दूर ,
हमारी थी कोई खाता या तुम्हे है कोई गरूर |

लताफत होगी अब ये जिंदगी तुम्हारे बिना ,
तुम्हे ही चाहेंगे , रहेंगे सदा तेरे आशना |

जानते है हम तुम भी यूं रह पाओगी ,
हर आईने में गिरधर की ही सूरत पाओगी |

जब एहसास होगा तुम्हे हमारी मोहब्बत का ,
छोड़ के सब मेरे पास भागी आओगी ......

इंतज़ार में
सौरभ गिरधर

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